मंडुए की खेती

मंडुआ , क्वादु , रागी , कई नामो से जाने वाला यह साधारण अनाज , किसी जमाने में गरीबों का खाना माना जाता था, अपनी पौष्टिक गुणवता के मालूम होते ही, सब का चहेता अनाज बन गया है.  आज के उपभोक्ता बाजार में, गेहूं से महँगा हो गया है. एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी तो इसके बिस्कुट भी  बनाने लगी है.  विदेशों में जो भारत के उत्तराखंडी,कर्नाटकी  और विहार, महाराष्ट्र के कुछ भागों के लोग रहते हैं,  भारतीय स्टोरों में, उनके लिए मंडुये का आटा और साबुत दाना, आसानी से मिल जाता है।साबुत दाने को भिगो कर अंकुरित होने पर उसका दलिया, शिशुओं को दिया जाता है.
कहने का तात्पर्य यह है की मंडुये की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है , तो इसके उत्पादन को भी प्रोत्साहन मिल रहा है। इसी कारण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों के किसानो के लिए यह एक सुनहरा अवसर आ गया है की व अपने खेतों में सामूहिक रूप से व्यावसायिक खेती करके मंडुए की आपूर्ति को पूरा करके लाभ उठायं।
किसी भी व्यवसाय में आपूर्ति की निरंतरता का अहम महत्व है।

मंडुआ बरसात की फसल है, इसकी खेती की अपनी टेक्नोलॉजी है, जहां नलाई गुडाई से खर पतवार निकाला जाता है, वही दंडाला दे कर इसके जड़ों को हिला कर पुन्ह्स्थापित होने और कल्ले फोड़ने के लिए उकसाया जाता है, की एक ही पौधे के कई कल्ले फूटें और पैदावार बढे. फिर कटाई के बाद मंदाई से पहिले इसके गु
को सिजाया जाता है एक ख़ास समय के लिए।  इस सिझाने से इसक रंग और स्वाद निर्धारित होता है. इस लिए अनुभवे खेतीहरों ( पुरुषों /स्त्रियों ) से सलाह ले कर ही सब काम करना श्रेय कर होता है.
मंडुए की कटाई के बाद बचा पौधा , एक अच्छा पशु आहार है , अगर साथ साथ दुग्ध उत्पादन का धंदा भी व्यवसायिक स्तर पर शुरू किया जा सके तो , इस सूखे चारे का मूल्य भी आय का अतिरिक्त साधन बन जाता है।
इस सलाह पर मनन कीजिये और आगे बढिए, कुछ नये तरीके से व्यवसायिक खेती करने की पहल कीजिए।

556570_437901289564777_69733326_n copy.jpg

Leave a comment